नैतिकता के नाम पर हस्तक्षेप और बलप्रयोग: क्या समाज सही दिशा में जा रहा है?
नैतिकता के नाम पर हस्तक्षेप और बलप्रयोग: क्या समाज सही दिशा में जा रहा है?
हाल ही में उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जिले की एक घटना ने समाज और कानून दोनों के लिए गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। एक महिला और एक राजनेता, जो वर्षों से आपसी सहमति से संबंध में थे, किसी एकांत स्थान पर मिल रहे थे। कुछ लोगों ने उनकी निजता का उल्लंघन किया और उन्हें ब्लैकमेल करने की कोशिश की। जब दोनों ने पैसे देने से इनकार किया, तो उनकी तस्वीरें सोशल मीडिया पर वायरल कर दी गईं। विरोधी राजनीतिक दलों ने इस मुद्दे को तूल दे दिया।यह कोई अकेली घटना नहीं है। हाल ही में मध्य प्रदेश में भी एक राजनीतिक कार्यकर्ता को इसी तरह के मामले में ब्लैकमेल किया गया। यह चिंता की बात है कि समाज में ऐसे लोग सक्रिय हैं जो दूसरों की निजी ज़िंदगी को हथियार बनाकर धन उगाही और चरित्र हनन का धंधा कर रहे हैं।
समझने की बात यह है कि यदि दो वयस्क आपसी सहमति से कोई संबंध बनाते हैं और उसमें परिवार की जानकारी भी हो, तो उसमें समाज या प्रशासन की जबरदस्ती कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए। यह निजी जीवन का विषय है, न कि कोई सार्वजनिक आपराधिक कृत्य।बुलंदशहर की घटना में महिला और नेता ने साहस के साथ ब्लैकमेलरों का विरोध किया। ऐसे मामलों में पुलिस का दायित्व है कि वह ब्लैकमेलिंग करने वालों के विरुद्ध सख्त कार्रवाई करे, ताकि भविष्य में कोई और व्यक्ति इस प्रकार की हरकत करने की हिम्मत न कर सके।
इसी संदर्भ में कुछ और घटनाएं चिंतन योग्य हैं।
महाराष्ट्र में एक पिता ने अपनी बेटी को सिर्फ इसलिए पीट दिया क्योंकि वह परीक्षा में कम अंक लाई थी। हरियाणा में एक और दुखद घटना में एक पिता ने अपनी बेटी की हत्या कर दी क्योंकि वह अपनी मर्जी से किसी युवक से संबंध रखती थी। पंजाब में एक लड़की, जो अश्लील चित्रों के माध्यम से अपनी आर्थिक स्थिति सुधारना चाहती थी, समाज के तथाकथित नैतिक ठेकेदारों द्वारा हत्या का शिकार हो गई।इन घटनाओं में देखा गया है कि तथाकथित नैतिकता के नाम पर या तो परिवार के सदस्य या समाज के कुछ लोग महिलाओं पर क्रूर हिंसा कर रहे हैं।
यहां एक बुनियादी प्रश्न उठता है – क्या आज के समाज में महिलाओं को अपनी मर्जी से जीने का अधिकार नहीं है? यदि कोई महिला अपनी इच्छा से, अपनी परिस्थितियों को समझकर, कुछ कदम उठाती है – भले ही वे समाज की पारंपरिक नैतिकता के विपरीत हों – तो क्या हमें उन्हें दंड देना चाहिए या उन्हें समझाना चाहिए? नैतिकता समाज का मार्गदर्शक तत्व अवश्य है, लेकिन समय और सामाजिक संरचना के साथ नैतिक मापदंडों की समीक्षा आवश्यक है। जो मानदंड 50 वर्ष पहले उपयुक्त थे, वे आज के समाज में शायद प्रासंगिक नहीं रह गए हैं। आज की पीढ़ी अपनी सोच, अधिकार और स्वतंत्रता को लेकर अधिक सजग है। इस परिस्थिति में यदि कोई महिला किसी राजनीतिक या आर्थिक कारण से किसी पुरुष से संबंध बनाती है, तो यह अनैतिक हो सकता है, परंतु अपराध नहीं।हमें यह भी समझना होगा कि अनैतिक आचरण पर सज़ा नहीं, बल्कि सामाजिक प्रतिक्रिया हो सकती है – जैसे बहिष्कार – वह भी किसी तयशुदा सामाजिक या पारिवारिक व्यवस्था के तहत, न कि भीड़ के दबाव या निजी प्रतिशोध के चलते।दुर्भाग्य से, हमारे समाज में ऐसे अनेक लोग हैं जो नैतिकता की आड़ में हिंसा, दमन या बदले की भावना को बढ़ावा देते हैं। अक्सर देखा गया है कि ऐसे लोग स्वयं चरित्रहीन होते हैं या सामाजिक मूर्खता में जी रहे होते हैं। उन्हें वर्तमान सामाजिक यथार्थ की समझ ही नहीं होती।समाज को यह तय करना होगा कि वह व्यक्तिगत स्वतंत्रता, कानून और नैतिकता के बीच किस संतुलन को अपनाएगा। बल प्रयोग और भीड़ की नैतिकता से न समाज सुधरेगा, न मूल्य बचे रहेंगे।
यह समय है जब हमें गहरे और व्यापक स्तर पर इस विषय पर पुनर्विचार करना चाहिए।
मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि एक बहुत ही छोटी संख्या – शायद दो प्रतिशत – ऐसी महिलाएं भी हैं जो समाज में अपने स्वार्थ सिद्ध करने के लिए कुछ राजनेताओं से मिलीभगत कर लेती हैं। वे उन्हें संतुष्ट कर सामाजिक और कानूनी व्यवस्थाओं को प्रभावित करती हैं। इसके परिणामस्वरूप कई बार ऐसे कानून बनते हैं जो समाज के व्यापक हितों की जगह, कुछ व्यक्तियों के हितों की रक्षा करते प्रतीत होते हैं। इस प्रक्रिया में पारंपरिक परिवारों की महिलाएं भी इन प्रभावशाली महिलाओं के विचारों से प्रभावित होकर भ्रमित हो सकती हैं।
यह स्थिति निश्चित रूप से चिंता का विषय है। लेकिन अगर हम गहराई से देखें तो इस विकृति का एक बड़ा कारण हमारी पारंपरिक पारिवारिक व्यवस्था भी है। हमने लंबे समय तक महिलाओं को घरेलू निर्णयों में बराबरी का स्थान नहीं दिया। हमने पारिवारिक नेतृत्व को केवल पुरुषों का विशेषाधिकार माना, जबकि यदि परिवारों में लोकतांत्रिक निर्णय प्रणाली लागू हो और महिलाओं को भी निर्णायक भूमिका मिले, तो अधिकांश महिलाएं भी सामंजस्य और सौहार्द के साथ निर्णयों में भाग लेंगी।
वास्तविकता यह है कि हम अब भी अपने पुराने संस्कारों से चिपके हुए हैं, और नई सामाजिक परिस्थितियों को स्वीकार करने में संकोच कर रहे हैं। शायद इसीलिए जब मैंने कल अपने कुछ विचार साझा किए, तो कई पाठकों को वह असहज लगे – क्योंकि हम अभी तक अपनी पुरानी सोच से बाहर नहीं निकल पाए हैं।
हमें यह स्वीकार करना होगा कि केवल आलोचना करने से समाधान नहीं निकलेगा। यदि हम कुछ विकृतियों की निंदा करते हैं, तो साथ ही हमें अपनी व्यवस्था की कमियों पर भी आत्मचिंतन करना होगा। आवश्यकता है कि हम कानून की दृष्टि से महिला और पुरुष के बीच भेद को समाप्त करें – और समानता के आधार पर सबको देखें। साथ ही साथ हमें सामाजिक और पारिवारिक ढांचे में भी समयानुकूल बदलाव लाने चाहिए।
मैं उन विचारों से सहमत नहीं हूं जो यह मानते हैं कि पुरानी पारिवारिक व्यवस्था ही हर परिस्थिति में आदर्श है। बदलते समय में आवश्यक है कि हम पुरानी परंपराओं का सम्मान करते हुए, उनमें आवश्यक लोकतांत्रिक और न्यायसंगत सुधारों को शामिल करें।
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