शीशे की दीवार और न्यायपालिका की गंभीरता
शीशे की दीवार और न्यायपालिका की गंभीरता
हाल ही में समाचार प्राप्त हुआ है कि भारत के सुप्रीम कोर्ट ने एक या दो वर्ष पूर्व अपने न्यायालय कक्ष में एक शीशे की दीवार बनवाई थी, ताकि एयर कंडीशनिंग की व्यवस्था अधिक सुविधाजनक बनाई जा सके। किंतु इतने कम समय में ही सर्वोच्च न्यायपालिका ने उस दीवार को हटाने का आदेश दे दिया, और अब वह शीशे की दीवार हटा दी गई है।
इस दीवार को बनाने और फिर हटाने में कुल लगभग ढाई करोड़ रुपये का व्यय हुआ। प्रश्न केवल इस राशि के खर्च का नहीं है—क्योंकि विधायिका और कार्यपालिका के लिए इस प्रकार का व्यय अब एक सामान्य बात बन चुकी है। ढाई करोड़ रुपये तो इन संस्थाओं के लिए मानो एक चींटी के समान हैं।
मूल चिंता यह है कि क्या हमारी न्यायपालिका भी धीरे-धीरे उसी राह पर बढ़ रही है? क्या हमारे माननीय न्यायाधीश अब पैसे के महत्व को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं? यदि न्यायपालिका भी जल्दबाज़ी में निर्णय लेने लगेगी और बार-बार अपने ही निर्णयों में बदलाव करेगी, तो उसकी गंभीरता और विश्वसनीयता पर
प्रश्नचिह्न खड़ा होना स्वाभाविक है।
पिछले पाँच से दस वर्षों में हमने देखा है कि सर्वोच्च न्यायालय अपने ही पूर्ववर्ती निर्णयों को कई बार बदल चुका है। यद्यपि असाधारण परिस्थितियों में ऐसा होना स्वीकार्य है, लेकिन जब यह एक नियमित प्रवृत्ति बन जाए तो न्यायपालिका पर से जनता का विश्वास डगमगाने लगता है।
न्यायाधीशों के बदलने से यदि पूरी न्यायिक सोच ही बदल जाए, तो यह स्वस्थ परंपरा नहीं मानी जा सकती। न्यायपालिका केवल न्यायाधीशों की निजी सोच से नहीं, बल्कि स्थापित न्यायिक सिद्धांतों से संचालित होती है। अतः मेरा विनम्र सुझाव है कि न्यायपालिका को निर्णय लेने में अत्यधिक शीघ्रता नहीं दिखानी चाहिए और पहले से स्थापित सिद्धांतों में बिना गंभीर विचार के परिवर्तन नहीं करना चाहिए।
यह टिप्पणी केवल शीशे की दीवार तक सीमित नहीं है—यह एक प्रतीक है, जो न्यायिक सिद्धांतों की अस्थिरता की ओर संकेत करता है।
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