विषय: नई समाज व्यवस्था पर चर्चा

विषय: नई समाज व्यवस्था पर चर्चा

हम आज इस विषय पर विचार कर रहे हैं कि गांधी और संघ — दोनों के मार्गों में मूलभूत अंतर क्या था।
गांधी समाज को सर्वोच्च मानते थे, परंतु समाज की सर्वोच्चता के लिए वे भारत की स्वतंत्रता को तत्काल आवश्यक समझते थे। इसीलिए गांधी का लक्ष्य था समाज की स्वतंत्रता, और मार्ग था राष्ट्रीय स्वतंत्रता। संघ का दृष्टिकोण इससे बिल्कुल भिन्न था। संघ का विश्वास था कि राष्ट्र सशक्त होना चाहिए, और इसके लिए समाज को संगठित व मजबूत किया जाना आवश्यक है। गांधी जहां सम्पूर्ण विश्व को एक समाज के रूप में देखते थे, वहीं संघ की दृष्टि भारत राष्ट्र तक सीमित थी। संघ के लिए राष्ट्र सर्वोच्च था।

यही कारण है कि स्वतंत्रता संग्राम में संघ ने प्रत्यक्ष रूप से कोई भाग नहीं लिया कि संघ गांधी के मार्ग पर विश्वास नहीं करता था, संघ यह मानता था कि स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले एक मजबूत और एकताबद्ध समाज का निर्माण आवश्यक है।

मेरे विचार में संघ की यह सोच भी अपने स्थान पर गलत नहीं थी। संघ ने अप्रत्यक्ष रूप से एक ब्राह्मण’ की भूमिका निभाई — अर्थात वह यह चाहता था कि समाज की एकता और संगठन पर सर्वाधिक ध्यान दिया जाए। संघ ने किसी राजनीतिक टकराव में पड़ने के बजाय सामाजिक एकता के कार्य को ही प्राथमिकता दी।

यदि वर्तमान समय में भी कोई संस्था राजनीतिक संघर्षों से दूर रहकर केवल सामाजिक सशक्तिकरण तक सीमित रहती है, तो उसे भी गलत नहीं कहा जा सकता।

फिर भी यह सत्य है कि समय के साथ संघ पर सावरकरवादी विचारों का प्रभाव बढ़ता गया। इस कारण संघ ने स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय उग्रवादियों की सहायता तो की, परंतु स्वयं प्रत्यक्ष रूप से उसमें भाग नहीं लिया।
संघ ने कभी-कभी गांधीवादी योजनाओं का विरोध भी किया, किंतु उसने स्वतंत्रता संग्राम का विरोध कहीं भी नहीं किया — ऐसा कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है।

अतः सावरकरवाद और संघ — इन दोनों को अलग-अलग दृष्टि से देखने की आवश्यकता है।
फिर भी यह निश्चित है कि संघ ने स्वतंत्रता संग्राम में प्रत्यक्ष भाग नहीं लिया और स्वतंत्रता प्राप्ति के समय स्वयं को एक सांस्कृतिक संगठन के रूप में सीमित रखा।