स्वतंत्रता के बाद मैंने लंबे समय तक मीडिया को समाज सेवा का माध्यम माना।

 

मैं बचपन से ही मानता था कि व्यवस्था परिवर्तन में मीडिया की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। मैं इसकी शक्ति को भली-भाँति समझता था और यह भी जानता था कि स्वतंत्रता संग्राम में लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी जैसे नेताओं ने मीडिया का प्रभावी उपयोग किया। स्वतंत्रता के बाद मैंने लंबे समय तक मीडिया को समाज सेवा का माध्यम माना। लेकिन जब मेरे और मीडिया के बीच तनाव बढ़ने लगा, तो मैंने इसे गलत समझा और एक स्वतंत्र ज्ञान-तत्व पाक्षिक की शुरुआत की। धीरे-धीरे मेरे मीडिया से संबंध और बिगड़ते गए, क्योंकि मैं इसे कभी व्यवसाय नहीं मान सका।

पिछले 30-40 वर्षों में मुझे धीरे-धीरे यह समझ आया कि मीडिया वास्तव में एक स्वतंत्र व्यवसाय है। यह अपनी आर्थिक आवश्यकताओं के लिए सरकार के दबाव में काम करता है, साथ ही सरकार की आलोचना का दिखावा भी करता है, क्योंकि बिना आलोचना के उसकी आर्थिक जरूरतें पूरी नहीं हो सकतीं। यही कारण है कि मेरे और मीडिया के संबंध कभी अच्छे नहीं रहे। आज भी मैं मानता हूँ कि मीडिया पूरी तरह से एक व्यावसायिक तंत्र बन चुका है।

हालांकि, सोशल मीडिया के आगमन ने स्थिति को बदल दिया है। पारंपरिक मीडिया की विश्वसनीयता और प्रासंगिकता धीरे-धीरे कम हो रही है। आज भारत का आम नागरिक डीडी न्यूज़ जैसे चैनलों को देखना पसंद नहीं करता, बल्कि बीबीसी जैसे अंतरराष्ट्रीय माध्यमों पर अधिक भरोसा करता है। अखबारों में अब बहुत कम लोग विचार पढ़ते हैं, और टीवी पर होने वाली राजनीतिक बहसों में भी लोगों की रुचि घट रही है। लोग अब मनोरंजन, जैसे फिल्मों, को प्राथमिकता देते हैं।

भविष्य में ऐसा प्रतीत होता है कि पारंपरिक मीडिया के प्रति लोगों का विश्वास और कम होगा, और सोशल मीडिया उसका स्थान ले लेगा, क्योंकि इसकी विश्वसनीयता और प्रभाव लगातार बढ़ रहे हैं। फिर भी, अगले 10-15 वर्षों तक पारंपरिक मीडिया की कुछ शक्ति और प्रासंगिकता बनी रहेगी।