वर्तमान समय में देश की अधिकांश समस्याओं के समाधान का मार्ग नरम हिंदुत्व ही है—इसके अतिरिक्त कोई व्यवहारिक विकल्प दिखाई नहीं देता।

वर्तमान समय में देश की अधिकांश समस्याओं के समाधान का मार्ग नरम हिंदुत्व ही है—इसके अतिरिक्त कोई व्यवहारिक विकल्प दिखाई नहीं देता। इसके साथ-साथ यह भी आवश्यक है कि हम संविधान को तंत्र की गुलामी से मुक्त करें। हम इन दोनों दिशाओं में एक साथ आगे बढ़ रहे हैं।

आज जो संविधान हमारे सामने है, उसमें समय-समय पर राजनेताओं द्वारा किए गए मनमाने संशोधनों ने उसकी मूल आत्मा को काफी हद तक क्षति पहुँचाई है। इन संशोधनों पर पुनः गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए।

यदि हम संविधान की मूल संरचना पर ध्यान दें, तो पाएँगे कि न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका—इन तीनों को समान अधिकार दिए गए थे। तीनों के बीच संतुलन, तालमेल और विशेष परिस्थितियों में किसी भी उदंड इकाई को नियंत्रित करने के लिए वीटो का अधिकार एक आपातकालीन व्यवस्था के रूप में रखा गया था। किंतु वर्तमान समय में तंत्र के तीनों ही अंग इस वीटो अधिकार का दुरुपयोग करते दिखाई दे रहे हैं।

हाल ही में आपने सुना होगा कि तमिलनाडु में एक न्यायाधीश के निर्णय के विरुद्ध संसद में कुछ हिंदू-विरोधी नेताओं ने महाभियोग लाने का निर्णय किया है। यह समझना आवश्यक है कि महाभियोग कोई सामान्य राजनीतिक हथियार नहीं, बल्कि एक अत्यंत आपातकालीन वीटो अधिकार है। इसका बार-बार उपयोग संविधान की भावना के विपरीत है।

अभी एक वर्ष पूर्व ही उपराष्ट्रपति के विरुद्ध भी इस प्रकार के वीटो का प्रयास किया गया। आज स्थिति यह है कि लगभग हर असहमति पर महाभियोग की धमकी दी जाती है, जिससे न्यायपालिका को डराने या दबाव में लेने की प्रवृत्ति विकसित हो रही है। यह न तो लोकतंत्र के लिए उचित है और न ही संस्थाओं की गरिमा के लिए।

जब देश की वैचारिक दिशा स्पष्ट रूप से नरम हिंदुत्व की ओर बढ़ चुकी है, तो उस सामाजिक-राजनीतिक प्रवाह को रोका नहीं जा सकता। मेरी दृष्टि में विधायिका द्वारा मुसलमानों को तुष्ट करने के उद्देश्य से वीटो शक्तियों का जिस प्रकार उपयोग किया गया है, उसकी देशव्यापी निंदा होनी चाहिए।

साथ ही, यह भी स्वीकार करना होगा कि न्यायपालिका भी हाल के वर्षों में वीटो जैसी शक्तियों का अत्यधिक प्रयोग कर रही है। न्यायपालिका को भी आत्मसंयम दिखाते हुए इस अधिकार के उपयोग से यथासंभव बचना चाहिए।